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Homeआर्टिकललोकतंत्र की स्तंभ को मजबूती प्रदान कर गया विधानसभा चुनाव ।

लोकतंत्र की स्तंभ को मजबूती प्रदान कर गया विधानसभा चुनाव ।

चुनाव या निर्वाचन, लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा जनता (लोग) अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। चुनाव के द्वारा ही आधुनिक लोकतंत्रों के लोग विधायिका (और कभी-कभी न्यायपालिका एवं कार्यपालिका) के विभिन्न पदों पर आसीन होने के लिये व्यक्तियों को चुनते हैं। चुनाव के द्वारा ही क्षेत्रीय एवं स्थानीय निकायों के लिये भी व्यक्तियों का चुनाव होता है। वस्तुतः चुनाव का प्रयोग व्यापक स्तर पर होने लगा है और यह निजी संस्थानों, क्लबों, विश्वविद्यालयों, धार्मिक संस्थानों आदि में भी प्रयुक्त होता है।

भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र निकाय है जो भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार है।

इसकी स्थापना 1950 में हुई थी, और इसकी प्राथमिक भूमिका देश में चुनावी प्रक्रिया का प्रशासन और विनियमन करना है।क्या मतदाताओं को प्रतिनिधियों को केवल स्वीकारने या अस्वीकारने के लिए मतदान करना चाहिए अथवा इससे परे विचार कर मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए? सार्वजनिक जीवन में अनुभव, सद्कार्यों के जरिये जनता में लोकप्रियता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता, जन कल्याण के लिए प्रतिबद्धता एवं राष्ट्रहित आदि गुणों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन होना चाहिए। निर्वाचित प्रतिनिधियों को विकास के एजेंडा के निर्धारण एवं क्रियान्वयन में सक्षम होना चाहिए। उनमें समावेशी एवं सतत विकास के लिए जरूरी विमर्श में जन आकांक्षाओं को रेखांकित करने की क्षमता होनी चाहिए।

चुनाव लोकतांत्रिक देशों की आत्मा होती है जो की लोकतंत्र को चलाती है।

चुनाव को संचालित करने के लिए सभी लोकतंत्र अपने देशों में निर्वाचन आयोग का गठन करते हैं, जिनकी भूमिका लोकतंत्र की गरिमा और निष्ठा को बनाये रखने में अहम् होती है। ठीक इसी प्रकार से भारत में भी ‘भारतीय निर्वाचन आयोग’ चुनाव प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष भाव से संपन्न कराने के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण निकाय है।चुनाव लोकतंत्र को मजबूत बनाती है, नेताओं को जनता, समाज और देश के हित में काम करने के लिए विवश करती है। चुनाव समाज और देश को प्रगतिशील बनाने के साथ लोगों को समानता का अधिकार भी प्रदान करता है, जिस समानता के बल पर लोग अपनी शक्तियों (मत) का प्रयोग करके अपने देश का भविष्य तय करते हैं। लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया विभिन्न प्रतिनिधित्वों के बिच में से जनता को एक कर्मठ और सामाजिक हितों को महत्व देने वाला प्रतिनिधित्व का चयन करके प्रदान करता है।भारतीय निर्वाचन आयोग की भूमिका लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के दौरान बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है क्यूंकि चुनाव का संचालन और उसके परिणाम की घोषणा निर्वाचन आयोग के द्वारा की जाती है और वैसे भी लोकतंत्र में आत्मा का प्रवाह नेताओं के रूप में निर्वाचन आयोग ही करता है, जिनके द्वारा हमारे देश और समाज को आगे प्रगति के पथ पर चलाया जाता है।

भारतीय निर्वाचन आयोग को चुनाव करवाने के लिए अधिकारों और शक्तियों की प्राप्ति देश के संविधान से होती है

क्यूंकि भारतीय निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक निकाय है, जहाँ पर अंकित ‘अन्नुछेद 324 से 329‘ यह बताता है की, भारतीय निर्वाचन आयोग देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, अधीक्षण और नियंत्रण के लिए पूर्ण रूप से दायित्व है और साथ ही चुनाव से सम्बंधित किसी भी प्रकार के मामलों में अदालत के हस्तक्षेप को प्रतिबंधित कर स्वयं निर्णय करती है।

चुनाव लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है, जिसके बिना लोकतंत्र अधूरा है

, लोकतंत्र में चुनाव का महत्व कहीं अधिक है लेकिन चुनाव के बिना यह असंभव है। लोकतान्त्रिक देश के सभी नागरिकों का यह अधिकार भी है और कर्तव्य भी की मतदान उनके लिए कोई दायित्व नहीं है, यह प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह अपने समाज और देश के लिए सही प्रतिनिधि चुने।मतदान का महत्व इसलिए नहीं है कि उसके द्वारा विकल्प मिल जाते हैं बल्कि इसलिए है कि उसके द्वारा हम किसी प्रतिनिधि को शक्ति प्रदान करके उसे प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जवाबदेह बना रहे हैं। चुनाव तो शक्तिसंपन्न प्रतिनिधियों को नियंत्रित करने का साधन है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भी चुनाव अपने ही दायरे में खत्म हो जाता है। इस प्रकार, लोकतंत्र का सार वास्तव में चुनने की स्वतंत्रता में नहीं है। बल्कि वह मुख्य रूप से निर्वाचित शक्ति से जुड़ा है। प्रजातंत्र को विकल्प चुनने मात्र से जोड़ देना और यह दावा करना कि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था प्रजातंत्र का प्रतिबिम्ब है, बहुत ही गलत है। भारत में ऐसी विचारधारा का परिणाम यह हो रहा है कि निर्वाचित शक्ति ही अप्रजातांत्रिक होती जा रही है।ऐसी स्थिति में चुनावों की सार्थकता क्या है? हम किसी को क्यों चुन रहे हैं? चुनाव की सार्थकता इसलिए है कि यह समाज के संसाधनों के समान वितरण की मूल धारणा को लेकर चलता है। इसे इस प्रकार से भी कहा जा सकता है कि हम किसी समाज के समान बाशिंदे हैं, और इसके प्रशासन और सम्पत्ति पर हमारा समान अधिकार है। व्यवहार में, सार्वजनिक सम्पत्ति या संसाधनों पर एक निर्धन का भी उतना ही अधिकार है, जितना कि एक धनी का।

किसी व्यक्ति का चुनाव करके या उसे प्रतिनिधि बनाकर हम उसे इसी सार्वजनिक संसाधनों की रक्षा का भार सौंपते हैं।

इस प्रतिनिधि द्वारा इस भारत के निर्वहन के तरीके में ही प्रजातंत्र का असल मर्म छिपा हुआ है।इसे न्यायधारिता या ट्रस्टीशिप भी कहा जा सकता है। गांधीजी ने भी इसकी जबर्दस्त वकालत की थी। निर्वाचित प्रतिनिधि तो हमारे एवज में महज एक ट्रस्टी है। इस ट्रस्टी का यह प्रधान कर्त्तव्य है कि वह उस सम्पत्ति की रक्षा करे, जिसके लिए उसे ट्रस्टी बनाया गया है। प्रजातंत्र का यही एक निहितार्थ है। आज यही अर्थ नष्ट होता जा रहा है। सुशासन का विचार भी इसी से जुड़ा हुआ है। निर्वाचित प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे अपने इस कार्य को सुचारू ढंग से सम्पन्न करें। इसका इतना सा ही अर्थ है कि वे हमारे एवज में ऐसे निर्णय लेकर उन्हें क्रियान्वित करें, जिनसे कि सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा हो सके। इसके स्थान पर वे हमारे हिस्से को भी अपनी व्यक्तिगत विकास में लगाने लगते हैं।

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